भगता परब “भगता घुरा” का तीसरे दिन आज अंतिम नेग।

झारखंड/गोड्डा : भगता परब/चड़क परब/गांजन परब/बिशु परब अलग-अलग नाम से जाने जाते है टोटेमिक कुड़मी विकास मोर्चा के जिलाध्यक्ष दिनेश कुमार महतो ने कहा कि मेरे गुरुजी लेखक महादेव डुंगरियार के अनुसार भगता परब के तीसरे दिन, यानी संक्रांति के दिन, “भगता घुरा” होता है और अगले दिन तेल-हरइद तथा पुरखों को कुंढ़ा देने की परंपरा के साथ भगता परब का समापन होता है, जिसे कुड़मालि में “कुंढ़ा-नाड़ा” कहा जाता है। इस दिन माँ या पत्नी उपवास रखती हैं और नहा-धोकर सात प्रकार के अनाज चावल, गेहूँ, चना, सेम, मकई, अरहर, मूंग को भूनकर ढेंकी में कूटती हैं। इससे बनने वाले कुंढ़ा में महुआ और आम भी मिलाया जाता है। घर के बुजुर्ग पुरुष डुभा (मिट्टी का पात्र) में यह कुंढ़ा लेकर नदी या तालाब जाते हैं और अपने *पुरखों को जल में अर्पित* करते हैं। यह घर के भुत-पिंढ़ा और घर भीतर में भी अर्पित किया जाता है। कुंढ़ा शब्द आज लुप्त होता जा रहा है। बहुत लोग इसे सत्तू कहने लगे हैं और ‘सतुआ’ शब्द प्रचलन में आ गया है।

याद रखें, यह भगता परब हमारे पुरखों की याद और सम्मान का पर्व है, जब उनके घाट उठते हैं। यही कुड़मालि संस्कृति की परंपरा है। परंतु अब कुछ कुड़मी घराने पितृपक्ष के आर्य कर्मकांडों की ओर झुकने लगे हैं, जिससे हमारी मूल सांस्कृतिक पहचान खतरे में है। अब समय है लौटने का अपने नेगाचारि (परंपरा) की ओर, अपने असल जड़ों की ओर नयी पीढ़ी को जोड़िए, कुड़मालि संस्कृति को बचाइएं जोहार।

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